विख्यात कृषि वैज्ञानिक डा. स्वामीनाथन ने हाल ही में एक सर्वेक्षण का उल्लेख करते हुए कहा कि 40 प्रतिशत से अधिक किसान खेती छोड़कर कोई भी वैकल्पिक कार्य करने को तैयार हैं।
कारण है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद भी सरकार किसान विरोधी नीति अपनाने में कोई संकोच नहीं कर रही है। किसानों की प्रतिवर्ष बढ़ती आत्महत्या दर इसका नतीजा और प्रमाण है। देश के बहुसंख्यक किसानों की उपेक्षा कर हम किस विकास की ओर बढ़ रहे हैं, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है।
यद्यपि सरकार किसानों को बोझ मान चुकी है, लेकिन आज भी कई किसान किसानी को बोझ नहीं मानते। विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपने लिए रास्ता निकाल ही लेते हैं। कुछ तो ऐसे भी लोग हैं जो आजीविका के अन्य साधन उपलब्ध होने के बावजूद कृषि कार्य अपनाते हैं।
बिहार के बेगूसराय जिले के नारायणीपार गांव के 25 वर्षीय युवा नीरज उर्फ गुड्डू ऐसे ही एक किसान हैं। नौकरी छोड़ किसानी में उतरे गुड्डू ने पारंपरिक खेती के साथ-साथ औषधीय पौधों, विशेष रूप से मेंथा अर्थात पिपरमेंट की खेती पर ध्यान दिया। डेढ़ लाख की लागत से यह खेती शुरू करने वाले गुड्डू अब तक 20 किसानों को अपने साथ जोड़ चुके हैं।
वे किसानों को और भी कई औषधीय पौधों व बागवानी फसलों की खेती से जोड़ना चाहते हैं। अपनी ग्राम पंचायत की एकता व समृद्धि के लिए उन्होंने किसान एकता मंच का भी गठन किया है। इस मंच के माध्यम से वे किसानों को आवश्यक जानकारी एवं बैंको के जरिए आर्थिक मदद पहुंचाने का भी प्रयास कर रहे हैं।
नीरज जैसे युवा, शिक्षित व रचनात्मक प्रतिभा के किसान ही एक साधारण किसान के दर्द को समझ सकते हैं और उसे सही मार्गदर्शन दे सकते हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि आज किसानों की तकदीर का फैसला उन लोगो के हाथों में है जिन्होंने नजदीक से न तो किसान को देखा है और न ही किसानी को।
जिसे यह नहीं मालूम कि मिट्टी में फावड़े कैसे चलते हैं, वे किसानों का क्या भला करेंगे? आज इस बात की सख्त जरूरत है कि कृषि नीति बनाते समय नीरज जैसे किसानों की राय जरूर ली जाए