मनुष्य और पर्यावरण पर हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभावों के बावजूद नीति-निर्माताओं ने कोई सबक नहीं सीखा और अदूरदर्शी कृषि विकास रणनीति को आगे बढ़ाने में लगे रहे। उदाहरण के लिए पंजाब में किसानों को मुफ्त बिजली दी गई, जिससे भूजल का दोहन अंधाधुंध बढ़ा और वहां के अधिकांश ब्लाक डार्क घोषित कर दिए गए।
देश को भुखमरी के हालात से बाहर निकालने में हरित क्रांति के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हरित क्रांति के रूप में जिस तकनीक का पदार्पण हुआ, उसका स्वरूप पूंजी प्रधान था और वह बाहरी आदानों इनफट्स पर आधारित थी। फिर यह उन्हीं क्षेत्रों में अपना कमाल दिखा पाई, जो पहले से साधन संपन्न थें जैसे- पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दक्षिण भारत के चुनिंदा क्षेत्र। इससे पिछड़े क्षेत्र और पिछड़ गए। फिर हरित क्रांति के पूंजी व तकनीक प्रधान होने के कारण छोटे व सीमांत किसान उसे बड़े पैमाने पर नहीं अपना सके। इससे ग्रामीण जीवन में नए विभाजन पैदा हुए। हरित क्रांति में उन फसलों को प्राथमिकता मिली, जिनका बाजार में अच्छा मूल्य मिलता हो जैसे- गेहूं, धान, कपास, गन्ना। इसका परिणाम यह हुआ कि किसान पेट के लिए नहीं अपितु बाजार के लिए खेती करने लगे। हरित क्रांति के अगुआ और भारत का अन्न भंडार माने जाने वाला पंजाब राज्य यदि कुपोषण के मामले में अफ्रीका के सबसे निचली पायदान के देश गैबान से भी नीचे है तो इसका कारण यही है कि पेट के लिए नहीं, अपितु बाजार के लिए खेती हो रही हैं।
नकदी फसलों को प्रमुखता मिलने के कारण दलहनी, तिलहनी फसलें व मोटे अनाजों की खेती अनुर्वर व सीमांत भूमियों पर धकेल दी गई। अब इन फसलों की खेती किसान अपनी जरूरत भर के लिए करने लगे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि फसल चक्र रूका और मिट्टी की उर्वरता, नमीनपन, भुरभुरेपन में कमी आई। इसकी कृत्रिम भरपाई के लिए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, रसायनों, सिंचाई आदि का प्रयोग बढ़ा। इससे कृषि मित्र जीव-जंतुओं का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ और मिट्टी की ऊपरी परत कठोर हुई। मिट्टी की ऊपरी परत के कठोर होते ही वर्षा जल के भूजल बनने के रास्ते बंद हुए। दूसरी ओर सिंचाई की जरूरत बढ़ने से भूजल के अंधाधुंध दोहन को बढ़ावा मिला। इससे न केवल पानी की कमी हुई, अपितु वह प्रदूषित भी हुआ और खेती की लागत भी बढ़ी। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के माध्यम से होने वाला प्रदूषण पेयजल व अनाजों के माध्यम से मनुष्य के शरीर में भी पहुंचना शुरू हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि ग्रामीण लोग भी उन बीमारियों का शिकार होने लगे जो कभी महानगरों तक ही सीमित थीं।
भारत जैसे शाकाहारी देश में दालें प्रोटीन आपूर्ति की महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं लेकिन नकदी फसलों की खेती के लोभ में दलहनों की खेती उपेक्षा का शिकार हो गई है। दूसरी ओर कनाडा, म्यांमार जैसे मांसाहारी देशों ने भारतीय मांग को देखते हुए, दालों की खेती को प्रोत्साहन देना शुरू किया, जिसका परिणाम हुआ कि हम आयातित दालों पर निर्भर हो गए। क्या इसे देश का दुर्भाग्य नहीं कहेंगें कि कनाडा जैसे मांसाहारी देश हमें दाले खिला रहा है? चूंकि आयातित दाल महंगी पड़ती है इसलिए गरीबों की थाली से वह दूर जाने लगी है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के अनुसार एक शाकाहारी व्यक्ति के लिए प्रतिदिन 48 ग्राम दालों की जरूरत होती है लेकिन 2008 में भारत में प्रति व्यक्ति औसत दाल खपत मात्र 31 ग्राम रह गई। दालों की खपत का यह राष्ट्रीय औसत है। समाज के कमजोर वर्गों की थाली से तो दालें लगभग गायब हो चुकी हैं।
दालों जैसी स्थिति खाद्य तेलों की भी है। आज से दो दशक पूर्व पाम आयल गिने चुने घरों में ही प्रयुक्त होता था, लेकिन आज भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक देश बन चुका है। 2009-10 में भारत ने 32,000 करोड़ रूपये का खाद्य तेल आयात किया। जो सरसों का तेल रसोई घरों की शान हुआ करता था उसे आयातित खाद्य तेलों ने रसोई घर से खदेड़ दिया।
हरित क्रांति ने धीरे-धीरे कृषि एवं ग्रामीण जीवन मौसमी बना दिया। कृषि कार्य के मौसमी बनते ही वर्ष के कुछेक महीनों को छोड़कर शेष मौसम में गांवों में फरुष व पशु अनुपयोगी हो गए। इससे फरुषों का महानगरों की ओर पलायन हुआ और पशुओं की बूचड़खानों में बिक्री शुरू हुई। इसे गेहूं पट्टी के किसी भी गांव में देखा जा सकता है। इस प्रकार दलहन, तिलहन व सब्जी उगाकर खाने वाला आत्मनिर्भर ग्रामीण समुदाय मनीआर्डर के रुपयों से आयातित दाल व खाद्य तेल तथा साप्ताहिक बाजारों में बिकने वाली सब्जी खाने पर बाध्य हुआ। यहीं से भारत में कुपोषण की शुरूआत होती है। यह निर्विवाद सत्य है कि हरित क्रांति से भले ही देश में खाद्य सुरक्षा आई हो, लेकिन पोषण सुरक्षा नष्ट करने में इसकी अग्रणी भूमिका निभाई।
मनुष्य और पर्यावरण पर हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभावों के बावजूद नीति-निर्माताओं ने कोई सबक नहीं सीखा और अदूरदर्शी कृषि विकास रणनीति को आगे बढ़ाने में लगे रहे। उदाहरण के लिए पंजाब में किसानों को मुफ्त बिजली दी गई, जिससे भूजल का दोहन अंधाधुंध बढ़ा और वहां के अधिकांश ब्लाक डार्क घोषित कर दिए गए। फिर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने वोट बैंक हासिल करने के लिए फसलों के समर्थन मूल्य में एकांगी नीति अपनाई। उदाहरण के लिए पंजाब में गेहूं और उत्तर प्रदेश में गन्ने का ऊंचा न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया गया, ताकि किसानों के वोट थोक में मिलें। इसी प्रकार की राजनीति अन्य राज्यों में भी खेली जाने लगी। इससे चुनिंदा फसलों का उत्पादन बढ़ा, लेकिन इसी के अनुरूप भण्डारण क्षमता में बढ़ोत्तरी न होने के कारण खुले में अनाज सड़ने की नौबत आ गई।
इस प्रकार एकांगी कृषि रणनीति अपनाने से समन्वित कृषि विकास में बाधा आई और हरित क्रांति थक-हारकर बैठ गई। पंजाब में 1990 के दशक से ही उत्पादकता में ठहराव आने लगा। राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो पिछले एक दशक से खाद्यान्न उत्पादन 22-23 करोड़ टन के आसपास बना हुआ है जबकि जनसंख्या में प्रतिवर्ष डेढ़ करोड़ टन की वृद्धि हो रही है। इसका दुष्परिणाम प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट के रूप में सामने आ रहा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार- 2007 में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 151 किलो वार्षिक रह गई है जो कि 1950 के औसत (152 किलोष् से भी कम है।
1991 में शुरू हुई उदारीकरण की नीतियों में सेवा व विनिर्माण क्षेत्र को प्रमुखता मिलने के कारण खेती-किसानी के प्रति उपेक्षा का रूख अपनाया गया। दूसरे, वैश्विक वित्तीय संस्थानों (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंकष् के दबाव के कारण भी सरकार ने कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी से अपने हाथ खींच लिए है। इसका परिणाम यह हुआ कि किसान अपनी वित्तीय जरूरतों के लिए निजी साहूकारों पर निर्भर होते गए, जो उन्हें फांसी के फंदे तक ले गया। पिछले डेढ़ दशक में दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। स्वयं भारत सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि देश के चालीस फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं बशर्ते उन्हें वैकल्पिक रोजगार मिले। तीसरे, विश्व व्यापार समझौते के प्रावधानों के कृषि क्षेत्र में लागू होने के बाद उन कृषि उपजों का आयात भी बढ़ा जिनकी देश में बहुतायत है। उदाहरण के लिए उत्तर भारत के गोदामों गेहूं रखने की जगह नहीं हैं वहीं दक्षिण भारत की आटा मिलें, आस्ट्रेलिया से गेहूं आयात कर रही हैं क्योंकि आयातित गेहूं सस्ता पड़ रहा है। अब विकसित देश भारत पर दबाव बना रहे हैं कि वह अपने विशाल कृषि क्षेत्र को विकसित देशों के सब्सिडी सिंचित कृषि उपजों के लिए खोले। देर सबेर भारत सरकार को इस मांग मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, तब हमारी कृषि और बदहाल होगी।
समग्रतः जिस हरित क्रांति की सफलता के गीत गाए जा रहे हैं उसने एकांगी कृषि रणनीति को बढ़ावा दिया और खेती-किसानी को बाजार के हवाले कर दिया। चूंकि बाजार का स्वरूप अपने आप में शोषणकारी होता है। इसलिए बहुसंख्यक किसान शोषण के दुष्चक्र में फंस कर रह गए। अनाज के भरे गोदाम और खाली पेट की विडंबना का मूल कारण यह बाजार तंत्र ही है। अब इन्हीं खाली पेटों को दो रुपये की दर से अनाज बांटकर भरने की कवायद जारी है।